प्रकाश चंद बैरवा
समकालीन कहानियों में सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति मुख्य रूप में हो रही है। समकालीन कहानी जीवन
के हर पहलू को वास्तविकता के साथ अभिव्यक्त करती है। समाज में बदलती सामाजिक
परिस्थितियों ने अनेक जीवन मूल्यों में परिवर्तन किया है। यही परिवर्तन मूल्य दृष्टि
समकालीन कहानी में अभिव्यक्त हो रही है। समकालीन कहानीकार अपने जीवन के अनुभव अपनी
कहानियों में लाकर उन्हें काल व परिवेश के वृह्त्तर प्रश्नों से जोड़ रहे हैं- “पहले
के लेखक की एक अतिरिक्त सत्ता थी, इसीलिये वह रचना करता था। आज का लेखक रचना को
झेलता है, क्योंकि हर जगह भागीदारी की हैसियत से वह विद्यमान रहता है।”[1]
समकालीन कहानियों में सामाजिक परिवेश अधिक सशक्तता से प्रस्तुत हुआ है। नये
जीवन और मूल्यगत संकट के परिप्रेक्ष्य में समकालीन कहानीकारों ने बदली हुई जीवन
स्थितियों और संबंधों में व्याप्त तनाव, विघटन और जटिलता को पहचान कर अपनी
कहानियों में अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। भीष्म साहनी, धर्मवीर भारती,
निर्मल वर्मा, अमरकांत, शेखर जोशी, हरिशंकर परसाई, कमलेश्वर, मोहन राकेश,
राजेन्द्र यादव, रमेश बक्शी, उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती आदि
प्रमुख समकालीन कहानीकार हैं।
भीष्म साहनी हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद की
परंपरा के अग्रणी लेखक माने जाते है। इनका जन्म 8 अगस्त, 1915 को रावलपिंडी में
हुआ, जो वर्तमान में पाकिस्तान का हिस्सा है। ये ऐसे सजग कथाकार थे जिन्होंने अपनी
रचनाओं में सामाजिक यथार्थ को पूरी जीवंतता के साथ अभिव्यक्त किया है। इन्होंने
अपनी कहानियों में टूटते-बदलते मानवीय मूल्यों, मध्यवर्गीय जीवन, साम्प्रदायिकता,
धार्मिक पाखंड, न्याय व्यवस्था, व्यवसायिकता आदि पर तीव्र प्रहार किया हैं। इस
सन्दर्भ में नामवर सिंह लिखते हैं- “सादगी और सहजता भीष्म साहनी जी की कहानी कला
की खूबियाँ है, जो प्रेमचंद के अलावा और कहीं नहीं दिखाई देती है। जीवन की विडम्बना
पूर्ण स्थितिओं की पहचान भी भीष्म साहनी में अप्रतिम है। यह विडम्बना उनकी अनेक
अच्छी कहानियों की जान है। चाहे वह ‘चीफ़ की दावत’ हो या ‘वाङ्चू’, ‘त्रास’ हो या
‘अमृतसर आ गया है’ यह विडम्बना की ही कहानी की शक्ति है।”[2]
भीष्म साहनी द्वारा कृत ‘चीफ़ की दावत’, ‘त्रास’, ‘वाङ्चू’, ‘गंगो का जाया’,
‘निशाचर’, ‘पाली’, ‘अमृतसर आ गया’, ‘ओ हरामजादे’, ‘समाधि भाई रामसिंह’, ‘सागमीट’,
‘फ़ैसला’, ‘मुर्गी की कीमत’, ‘झुटपुटा’, ‘आवाजें’ आदि कहानियाँ प्रमुख हैं जिनमें
सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति हुई हैं।
समकालीन दौर में
आज मध्यमवर्गीय व्यक्ति की महत्वकांक्षाएं दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। वह अपने मध्यमवर्गीय जीवन से संतुष्ट नहीं
होता तथापि वह उच्च वर्ग में शामिल होने की इच्छा अपने मन में रखता है।
मध्यमवर्गीय व्यक्ति की यह चाह आज समाज में अवसरवादिता को बढ़ावा देने का काम कर
रही है। भीष्म साहनी कृत ‘चीफ़ की
दावत’ मध्यवर्गीय जीवन की एक
महत्वपूर्ण यथार्थवादी कहानी है। इस कहानी का मुख्य उद्देश्य मध्यमवर्गीय व्यक्ति
की अवसरवादिता एवं उसकी महत्वाकांक्षा में पारिवारिक रिश्ते के विघटन को उजागर
करना है। मध्यम वर्ग का व्यक्ति हमेशा उच्च वर्ग में शामिल होने के अवसरों की तलाश
में रहता है, चाहे वह स्वयं निम्न वर्ग से मध्यवर्ग में पंहुचा हो। इस कहानी का नायक
शामनाथ दफ्तर की नौकरी पाकर उच्च पद पाने की महत्वाकांक्षा रखता है और जिसकी
पूर्ति के लिए वह अपने दफ्तर के विदेशी चीफ़ की खुशामद में लगा हुआ है। अपने चीफ़ को
खुश करने के लिए शामनाथ अपने घर पर एक दावत रखता है। चीफ़ की दावत का प्रबन्ध करते
समय उसे अचानक अपनी बूढी माँ का ख्याल आता है, जिसके उपरांत वह अपनी माँ को इस
दावत से दूर रखने के प्रयत्न में उनकी उपेक्षा करता है।
शामनाथ की महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए
माँ के साथ उसका खून का रिश्ता भी गौण हो जाता है और चीफ़ की दावत के समय बूढी माँ
प्रदर्शन योग्य वस्तु नहीं, बल्कि कूड़े की तरह कहीं छिपाने की वस्तु हो जाती है।
जब घर का फालतू सामान अलमारियों के पीछे रख दिया जाता है तभी अचानक शामनाथ को माँ
का ख्याल आता है और वह अपनी पत्नी की ओर मुड़कर अंग्रेजी में कहते है कि, “माँ का क्या होगा?” श्रीमती काम करते करते
ठहर गई और थोड़ी देर सोचने के बाद बोलीं – “इन्हें पिछवाड़े इनकी सहेली के घर भेज
दो, बेशक वहीं रहें। कल आ जाए।”[3]
भीष्म साहनी की इस कहानी में माँ घर के फालतू सामान की तरह है। माँ, बेटे और
बहु दोनों के लिए एक समस्या है। वर्तमान में शिक्षित वर्ग के लिए जो उपयोगी या
लाभकारी नहीं है, उनके लिए उसका कोई महत्त्व नहीं है। इस प्रकार प्रस्तुत कहानी के
माध्यम से भीष्म साहनी ने मध्यवर्ग के चित्र और चरित्र दोनों को यथार्थवादी नजरिये
से प्रस्तुत किया है।
भारतीय सामाजिक व्यवस्था में निम्न वर्ग की
स्थिति बेहद ही दयनीय है। इस वर्ग को हमेशा किसी न किसी समस्या से जूझना ही पड़ता
है, जिसमें प्रमुख रूप से इनके जीवन में आर्थिक विपन्नता का होना है। इन्हें
आर्थिक संकट से बचने के लिए हर हाल में अपना काम करना ही पड़ता है ताकि ये अपनी
जीविका को चला सके। इस आर्थिक संकट से निम्न वर्ग में सम्मिलित स्त्रियाँ भी नहीं
बच पातीं और उन्हें भी मजबूरन अपनी पारिवारिक समस्याओं को देखते हुए कोई न कोई
कार्य करना ही पड़ता है। परन्तु समाज निम्न वर्ग की इन स्त्रियों को केवल भोग की
वस्तु समझता है जिस कारण इनकी स्थिति बेहद ही दयनीय बनी रहती है। भीष्म साहनी ‘गंगो का जाया’ कहानी में गंगो के माध्यम
से निम्न वर्गीय पारिवारिक और सामाजिक जीवन को दर्शाते हुए स्त्रियों की मार्मिक
दशा को बयाँ करते हैं। वहीं दूसरी ओर गंगो के छ: साल के बेटे रिसा द्वारा दिहाड़ी
मजदूरी और स्वरोजगार में लगे कम उम्र के बच्चों का यथार्थ चित्रण भी इस कहानी में
भीष्म साहनी ने किया है। कहानी में गंगो जहाँ काम कर रही होती है वहाँ ठेकेदार
गंगो को काम से केवल इसलिए निकाल देता है कि वह गर्भवती है और पूरा काम नहीं कर
सकती। ठेकेदार गंगो से कहता है कि, “खड़ी
देख क्या रही है ? जो पेट निकला हुआ था, तो आई क्यों थी ?... पहले पेट खाली करके
आओ, फिर काम मिलेगा।”[4] इस स्थिति पर ठेकेदार
जिस तरह तीखे शब्द बोलता है, वह किसी भी स्त्री को अपमानित करने के लिए काफी है।
गंगो के इस तरह काम छूट जाने से उसके घर की
स्थिति इतनी बिगड़ जाती है कि उसे अपने बेटे रिसा को काम पर भेजना पड़ता है, जबकि
उसकी उम्र केवल छ: वर्ष की ही होती है। वह जूते पॉलिश करने दिल्ली की गलियों में
जाता है परन्तु शाम होने पर जब घर को लौटता है तो वह दिल्ली की गलियों में ही गुम
हो जाता है। वह अपने घर नहीं पहुँच पाता तथा जब वह देर रात तक घर नहीं पहुँच पाता
तो उसकी माँ को उसकी चिंता होती है; परन्तु अंत में वह यह सोच लेती है कि वह स्वयं
घर को लौट आएगा। अतः भीष्म साहनी इस कहानी के माध्यम से समाज में एक निम्नवर्गीय
स्त्री की दशा को व्यक्त करते हुए निम्न वर्ग की आर्थिक स्थिति का भी यथार्थ
चित्रण प्रस्तुत करते हैं। वे कहानी के माध्यम से दिखाते हैं कि एक निम्न वर्गीय
परिवार में यदि एक सदस्य का भी काम छूट जाये तो उस घर की आर्थिक स्थिति इतनी
ज्यादा बिगड़ जाती है कि एक छोटे से बच्चे को भी काम पर भेजते समय उन्हें ज्यादा
अफ़सोस नहीं होता।
भीष्म साहनी
विभाजन की त्रासदी का यथार्थ चित्रण भी अपनी रचनाओं में करते नजर आते है। लेखक ने साम्प्रदायिकता की भीषण आग को स्वयं
अपनी आँखों से देखा था। साम्प्रदायिकता समाज का ऐसा पहलु है जिस देख पाना शायद
सबके लिए मुमकिन नहीं है। उनकी कहानी ‘अमृतसर आ गया है’ भारत के विभाजन की
विभीषिका को व्यक्त करने वाली एक बहुत सशक्त कहानी है, जिसमें त्रासद परिस्थितियों
में व्यक्तियों के मनोविज्ञान का बड़ा मार्मिक चित्रण किया गया है। इस कहानी में
इन्होंने देश विभाजन के दौरान दो सीमाओं पर बैठे लोगों की साम्प्रदायिक वैमनस्य से
उपजी घृणित मानसिकता का मार्मिक चित्रण किया है। परिवेश बदलते ही मनुष्य की
मानसिकता बदल जाती है। भय हिंसा में, हिंसा भय में परिणत हो जाती है। यही कारण है
कि कहानी में पाकिस्तान से निकली रेल गाड़ी जब हिन्दू-बहुल प्रदेश में पहुँचती है
तो दुबला बाबु प्रसन्न हो उठता है और वह दुबला बाबु शेर बन गया; वहीं जो पठान
पाकिस्तान में शेर बन रहे थे, वे अब भीगी बिल्ली बन बैठे। साम्प्रदायिकता की
मन:स्थिति का प्रभाव हम कहानी की इन पंक्तियों में स्पष्ट देख पाते है, “मुझे लगा जैसे अपनी जगह बैठे सभी मुसाफिरों
ने अपने आसपास बैठे लोगों का जायजा ले लिया है। सरदार जी उठकर मेरी सीट पर आ बैठे।
नीचे वाली सीट पर बैठा पठान अपने दो साथी पठानों के साथ ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गया।
यह क्रिया शायद रेलगाड़ी के डिब्बों में भी चल रही थी। डब्बे में तनाव आ गया। लोगों
ने बतियाना बंद कर दिया। तीनों पठान ऊपर वाली बर्थ पर एक साथ बैठे चुपचाप नीचे की
ओर देखे जा रहे थे। सभी मुसाफिरों की आँखें पहले से ज्यादा खुली-खुली ज्यादा शंकित
सी लगी। यही स्थिति संभवतः गाड़ी के डिब्बों में व्यक्त हो रही थी।”[5]
इस कहानी के माध्यम से कहानीकार भीष्म साहनी ने देश के बँटवारे से फैले खूनी
साम्प्रदायिक दंगे, शरणार्थियों के काफ़िले, विस्थापितों की समस्या आदि का यथार्थ
चित्रण किया है।
समकालीन दौर में आज बेशक लोग पढ़-लिख गए है;
परन्तु ये लोग आज भी अपने समाज की रूढ़िवादिता से बाहर नहीं निकल सके है। समाज में
लोग धार्मिक अंधविश्वास से ग्रस्त है जिससे इनका बाहर निकल पाना कठिन ही लगता है।
धार्मिक अन्धविश्वास लोगों में भय का संचार करता है और यही भय समाज में धार्मिक
पाखंडों को भी बढ़ावा देता है; जो किसी भी समाज के लिए हितकारी नहीं है। भीष्म
साहनी कृत ‘समाधि भाई रामसिंह’ कहानी
में लोगों का चमत्कार एवं धार्मिक श्रद्धा
पर जो अंधविश्वास है उस पर करारा व्यंग्य किया गया है। कहानी में सामान्य जन को
चमत्कारिक संत बनने का अंधविश्वास लोगों में भर दिया जाता है- “जो भाई रामसिंह, अभी तक रामसिंह था, दोपहर
तक वह संत बन गया, जिसे दस वर्ष तक किसी ने न पूछा, आज उसी के दर्शन के लिए हजारों
लोग एडियाँ उठा-उठाकर झांक रहे थे।”[6]
धार्मिक जन रामसिंह की घोषणा से इतने उत्तेजित व उत्साहित होते हैं कि निश्चित समय
पर चोला न बदल आने पर पत्थरों व जूतों से उस पर प्रहार करते हैं- “भाई रामसिंह की भागती काया कभी एक पेड़ के
पीछे और कभी दुसरे के पीछे आश्रय ढॅूढ़ने लगी। मगर जहाँ वह जाता भक्त वहीं जा
पहुंचते। भला भक्तों से भी कोई भाग सका हैं ?... एन सूरज चढ़ते-चढ़ते भाई रामसिंह ने
चोला बदल दिया और उसकी इर्द-गिर्द जूतों और पत्थरों का ढेर लग गया था।”[7]
इस प्रकार प्रस्तुत कहानी में भीष्म साहनी ने धार्मिक आडम्बरों पर करारा व्यंग्य
किया है। समाज में आज भी धार्मिक पाखंड व्याप्त है जिससे मुक्ति शायद संभव नहीं है
जिसका प्रमुख कारण लोगों के मन में अंधी धार्मिक आस्था का होना है।
समकालीन समाज की
न्याय-व्यवस्था भी बेहद ही बिगड़ी हुई है। इस बिगड़ी न्याय-व्यवस्था के कारण ही समाज
में व्याप्त निम्न वर्गीय व मध्य वर्गीय लोग अदालतों तक में नहीं जाना चाहते।
जिसका कारण है कि न्यायालयों में मुकद्दमों का सही फैसला कम ही आता है। क्योंकि इस
समाज की न्याय-व्यवस्था में आज भ्रष्टाचार अधिक फैल चुका है। आज न्याय केवल फ़ाइल तक ही सीमित है, अगर उससे
बाहर निकलकर न्याय किया जाए तो वह समाज में मान्य नहीं समझा जा सकता क्योंकि इसके
कुछ दायरे हैं जो किसी निम्न वर्ग के व्यक्ति के लिए नहीं है। उच्च वर्ग के लोग
गवाह खरीद लेते हैं जिससे की दोषी छुट जाता है और निर्दोष को सज़ा हो जाती है, यही
है न्यायिक व्यवस्था की हकीकत। भीष्म साहनी ने अपनी कहानी ‘फ़ैसला’ में समाज की इसी न्याय-व्यवस्था पर तीखा व्यंग्य किया है।
कहानी में शुक्ला जी एक ईमानदार व्यक्ति है इसके अतिरिक्त वे न्यायाधीश भी है।
शुक्ला जी को हमेशा एक ही डर रहता है कि उनके द्वारा कभी कोई गलत फैसला न हो जाये।
जिस कारण ही एक मुकदमा जब उनके पास पहुँचता है तो उसकी सारी कार्यवाही होने के बाद
जैलदार को गुनाहगार समझा जाता है। परन्तु फ़ैसला सुनाने से पहले शुक्ला जी स्वयं इस
मुक़दमे की जाँच करते है तो उन्हें पता चलता है की जैलदार को फसाया गया है। इस कारण
वे जैलदार को छोड़ देते है, परन्तु इसे देख थानेदार खुश नहीं होता और
डिप्टी-कमिश्नर से कहकर इस मुक़दमे को हाईकोर्ट तक पहुँचा देता है। जहाँ शुक्ला जी
के फ़ैसले को गलत ठहरा दिया जाता है।
इस प्रकार कहानी में स्पष्ट है कि एक सरकारी
कर्मचारी को वही काम करना चाहिए जो फाइलों तक सीमित हो अर्थात् दायरे में रहकर।
अगर कोई व्यक्ति इन दायरों से अलग होकर कोई कार्य करे तो उसे ठीक नहीं माना जाता
चाहे वह ठीक ही क्यों न हो, “सरकारी नौकरी
का उसूल ईमानदारी नहीं है, दफ़्तर की फाइल है। सरकारी अफ़सर को फाइल के मुताबिक चलना
चाहिए।... “ऐसे चलती है व्यवहार की दुनिया”, वह कहने लगा, “मामला हाईकोर्ट में पेश
हुआ और हाईकोर्ट ने ज़िला-अदालत के फ़ैसले को रद्द कर दिया। जैलदार को फिर पकड़ लिया
गया और उसे तीन साल की कड़ी सज़ा मिल गई। हाईकोर्ट ने अपने फ़ैसले में शुक्ला पर
लापरवाही का दोष लगाया और उसकी न्यायप्रियता पर संदेह भी प्रकट किया।”[8]
इस प्रकार भीष्म साहनी ने ‘फैसला’ कहानी के माध्यम
से समाज में व्याप्त न्यायिक व्यवस्था पर करारा प्रहार किया है; इस व्ययस्था से न्याय
की उम्मीद करना ही बेकार है।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि भीष्म साहनी की
सभी कहानियाँ सामाजिक यथार्थ से जुड़ी कहानियाँ हैं। भीष्म साहनी की कहानियाँ अपने
समय की मानवीय संवेदनाओं, रागात्मक संबंधों और जीवन-स्थितियों को व्यापक धरातल पर
प्रस्तुत करती हैं। भीष्म साहनी समाज में फैले अंतर्विरोधों, मध्यवर्गीय
मानसिकताओं, धार्मिक आडम्बरों, न्यायिक व्यवस्था तथा साम्प्रदायिकता का यथार्थ
चित्रण अपनी कहानियों में करते हैं। इनका लेखन सामाजिक जीवन तथा मानवीयता के पक्ष
में हर स्तर पर अपने विचार व्यक्त करते हुए संवेदनशील व्यक्ति को अपने विचारों से
आंदोलित करने की क्षमता रखता है। इन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में
व्याप्त सभी आडम्बरों से सामान्य जन को परिचित कराना चाहते थे ताकि सामान्य जन इस
आडम्बरों से अपने को दूर रख सके। परन्तु जिस समाज में हम रह रहे हैं उसे पूर्ण रूप
से इन आडम्बरों से मुक्त करा पाना असंभव ही हैं। जिसका प्रमुख कारण यह माना जा
सकता है कि भारतीय समाज में एकता नहीं दिखाई पड़ती, जबकि बिना एकता के इन सभी
आडम्बरों से मुक्ति पाना संभव नहीं हैं। भीष्म साहनी ने अपनी रचनाओं में जीवन का वास्तविक
और स्पर्शपरक चित्रण किया है। अतः इन सभी कहानियों के माध्यम से कहानीकार भीष्म
साहनी पाठक वर्ग को सामाज में व्याप्त सामाजिक पाखंडों से सचेत व सावधान करना
चाहते हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
पत्रिका ‘Praxis International Journal of Social Science and Literature’ के 2018 दिसम्बर अंक में प्रकाशित शोधालेख