मनुष्य का किसी एक भौगोलिक क्षेत्र से दूसरे भौगोलिक क्षेत्र में सापेक्षत:
स्थायी या अस्थायी गमन की प्रक्रिया जिससे सामान्य निवास बदल जाता है, प्रवास कहलाता है। मुख्यतः प्रवास अपनी
मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जाता है। प्रवास की घटना मानव के बढ़ते
विकास चरण के साथ जुड़ी है। आज प्रवास का मकसद वैसा नहीं है, जैसा
19वीं सदी के आखिरी दिनों से लेकर आज़ादी के कुछ बरसों बाद तक रहा है। पहले का
प्रवासन अभाव और मजबूरियों के कारण किया जाता था और आज प्रवास अपनी इच्छा से तथा
आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जाता है।
प्रवासी एक तरह से वे हैं जो अपनी जड़ो
से कटकर भी अपने भीतर की गहराइयों में नई शक्ति, नई संवेदना और नई चेतना विकसित
करते हैं। यह चेतना अपने मूल्यबोध को तथा अपने अस्तित्व को बचाए रखने की है।
प्रवासी लेखक जिन्दगी के भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढांचे में लिप्त
होते हुए भी उसे पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर पाते, उनके अन्दर एक बेचैनी है
प्रवास के मानसिक संताप को न झेल पाने की। इतिहास साक्षी हैं कि भारत से दूर किसी
मेजबान देश में रह रहें साहित्यकारों को जिन दो प्रमुख मोर्चों पर कुचला गया वह है
अर्थ और अस्मिता। अर्थ की समस्या तो सुलझ गयी पर वहाँ हर साहित्यकार आज अपनी
अस्मिता की लड़ाई लड़ रहा है।
आज भारतीय मूल के लोग समस्त विश्व में
फैले हुए हैं। उन्होंने विदेशों को अपनी कर्मभूमि बनाया है। विदेशों में रहते हुए
अपनी अस्मिता को जीवित रखने के लिए उन्होंने सृजनात्मक लेखन किया है। भारतीय मूल
के विदेशों में रहने वालों के सृजनात्मक लेखन को प्रवासी साहित्य कहा जाता है और
जिन्होंने ‘हिंदी’ को केंद्र में रख कर साहित्य रचना की हैं, वे प्रवासी हिंदी साहित्यकार हैं। प्रवासी हिंदी साहित्य के अंतर्गत
कविताएँ, उपन्यास, कहानियाँ, नाटक, एकांकी, महाकाव्य, खंडकाव्य,
अनूदित साहित्य, यात्रा वर्णन, आत्मकथा आदि का सृजन हुआ है। इन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं द्वारा नीति-मूल्य,
मिथक, इतिहास, सभ्यता के
माध्यम से ‘भारतीयता’ को सुरक्षित रखा है।
प्रवासी साहित्यकारों में महिला
साहित्यकारों की भागीदारी पुरुष साहित्यकारों से अधिक है। भारत में महिला लेखन अभी
चौखट पार कर रहा है, किन्तु प्रवास में महिला लेखन भूमंडल में
टहल रहा है। प्रवासी कथाओं में नारी के तीन रूप उभर कर सामने आये हैं। पहला,
पाश्चात्य परिवेश में इस प्रकार ढल जाना कि नारी का विकृत रूप पाठकों के सामने आ
जाता है। दूसरा, प्रवासी नारी भारतीय एवं पाश्चात्य परिवेश
में सामंजस्य बनाकर आगे बढ़ने का प्रयास करती है। तीसरा, स्त्री या तो निराशाजन्य
स्थिति में अवसादग्रस्त हो गयी है या विद्रोहिणी बन गयी हैं।
अमेरिकी महिला प्रवासी साहित्य में सुषम
बेदी, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, सुधा ओम ढींगरा, इला प्रसाद आदि प्रमुख महिला
साहित्यकार हैं, जिनके साहित्य में स्त्री समस्याएं उभरकर
सामने आती है। परिवेश भिन्न होने के कारण चाहे समस्या बदल जाती है, परन्तु समस्याओं के मूल में वही कारण रहते है।
सुषम बेदी ने अपने कथा साहित्य के जरिये
न केवल प्रवासी स्त्री को चित्रित किया बल्कि प्रवास में रहते हुए तमाम तरह की
दिक्कतों का सामना करने वाली स्त्रियों की रोजमर्रा की जिन्दगी से भी रु-ब-रु
कराया है। ‘हवन’ (1989) सुषम बेदी द्वारा लिखा गया पहला उपन्यास है जिसमें अमेरिका
में प्रवासियों की जिन्दगी का यथार्थ दर्शाते हुए वहाँ के चकाचौंध में अपने जीवन
का हवन कर देने वाले व्यक्तियों की मनः स्थिति का बेजोड़ आकलन प्रस्तुत किया गया
है। इस उपन्यास में मिस्टर बत्रा का वर्णन है जो विदेश में प्रवास कर रही गुड्डों
को जरिया बनाकर वहाँ पहुँचाना चाहते हैं। इसमें डॉ. जुनेजा जैसे लोगों का जिक्र भी
है जो विदेश में नए आये लोगों की मदद तो करते हैं परन्तु साथ ही सब वसूल भी लेते
हैं। उपन्यास में राधिका जैसी दोहरी संस्कृति की शिकार लड़की की दुखद गाथा भी है जो
विदेशी चमक-दमक में इतनी खो जाती हैं कि अंत में बलात्कार का शिकार हो जाती है।
पश्चिमी संस्कृति की रंगरलियों में उपन्यास के पात्र अपना सब कुछ गँवा देते हैं।
लेखिका ने इसी और इशारा किया हैं कि भारतीय मूल्यबोध, भारतीय संस्कार मानवीय
मूल्यों का निर्माण करते हैं न कि संस्कारों का हवन।
‘लौटना’ (1992) में एक स्त्री की अस्मिता
की खोज की कथा है। एक नए परिवेश में अपने अस्तित्व को कायम रखते हुए अस्मिता की
तलाश करने वाली स्त्री की संघर्ष का चित्रण है जो बसने और लौटने की उधेड़-बुन में
फंसी नयी राह की खोज करती है। बसना नायिका मीरा की जरुरत है और लौटना उसका भारतीय
संस्कार। अपनी भूमि, अपनी मिट्टी पर अपनी जड़ों की ओर। यही है अपनी अस्तित्व को
कायम रखने की जद्दोजहद। मीरा शरीर से परदेश में है लेकिन मन से अपने देश में और
अपने इसी अस्तित्व के लिए वह पूरे उपन्यास में संघर्ष करती दिखाई गयी है। मीरा की
स्थिति प्रवासी लेखिका डॉ. अंजना संधीर के शब्दों से व्यक्त कर सकते हैं-
‘ख्याल उसका
हरेक लम्हा मन में रहता है
वो शम्मा बनके
मेरी अंजुमन में रहता है
मैं तेरे पास
हूँ, परदेश में हूँ, खुश भी हूँ
मगर ख्याल तो
हर दम वतन में रहता है।’
‘कतरा दर कतरा’ (1994) उपन्यास में
शिक्षा में असफल युवक का चित्रण किया गया है जोकि पिता की उम्मीद पर खरा न उतरने
के कारण हिन् भावना का शिकार हो जाता है और कहीं न कहीं मानसिक स्तर पर विकि्छपत
जाता है। प्रकारान्तर से यह उपन्यास भी नायिका शशि की यातना को भी
दर्शाता है। क्योंकि पितृसत्ता की शिकार शशि का जीवन ही कतरा दर कतरा रिसता है वह
पागल तो नहीं होती पर अपने जीवन का हर कतरा भाई और बेटे को सँभालने में ही व्यतीत
कर देती है। शशि पारिवारिक, सामाजिक तनाव से उत्पन्न खोखलेपन को झेलने के लिए
अभिशप्त है लेकिन परिस्थितियों के आगे हार नहीं मानती।
‘गाथा अमरबेल की’ (1999) स्त्री मन की
तह को परत दर परत उधेड़ता है जिससे कुछ चुभते हुए प्रश्न सामने आते हैं जो स्त्री
अस्तित्व और अस्मिता से जुड़े हैं। ‘नवाभूम की रस कथा’ (2002) उपन्यास में एक प्रेम
कथा है आदित्य और केतकी की। इसे पढ़कर ऐसा लगता हैं कि प्रेम सिर्फ खोने का नहीं
बल्कि पाने का नाम भी है। यह कथा वियोग में कराहती स्त्री की विरहगाथा न होकर
नवाभूमियों के प्यार की खोज तथा इसके जरिये अपनी पहचान की है, अपने अस्तित्व और
अस्मिता को बनाने की है।
‘मोरचे’ (2006) उपन्यास एक स्त्री के
शोषण पर आधारित है। इसकी नायिका तनु घिरी है कितने ही मोरचों से और इनसे जूझती हुई
संघर्ष करती है। वह नए विकल्प की खोज करती है और स्त्री के लिए बनी बनाई चौखट को
लांघने का फैसला लेती है। पति-परिवार से आगे जाकर अपने लिए उस व्यक्ति को चुनती है
जो सचमुच उसके लायक है। तनु का निर्णय स्त्री के लिए निर्धारित तयशुदा मानदंडों के
खिलाफ जाकर निजी खुशियों के लिए लिया गया है जो उसकी पहचान से जुड़ा हुआ है। इस
प्रकार हमने देखा कि सुषम बेदी ने अपने पात्रों के माध्यम से प्रवासी स्त्री की
द्वंद्वपूर्ण मानसिक स्थिति का चित्रण किया है, जो सम्पूर्ण भारतीय प्रवासी
जिन्दगी की चिंता का कारण बनती जा रही है। पश्चिमी संस्कृति को अपनाने के कारण जो
सांस्कृतिक संकट उत्पन्न हो रहे हैं उसमें उनके पात्र कैसे खुद के लिए नया रास्ता
तलाशते हैं तो कुछ अस्तित्व के लिए संघर्ष करते है।
सुषम बेदी की कहानी ‘काला लिबास’ में
अमेरिका में जन्मी और पली बढ़ी अनन्या के माध्यम से अपनी संकृति और मातृभाषा के
प्रेम को उजागर किया है वहीँ दूसरी ओर अनन्या के माँ-पिता द्वारा अमेरिकी संस्कृति
में पूरी तरह घुलमिल कर बदल जाने की तरफ भी ईशारा करती है जो अनन्या को कचोटता है।
उसका दर्द हैं कि भारत में वह किसी को विदेशी नहीं लगती है। जबकि जहाँ वह पैदा हुई
है, जहाँ उसका घर है, वहाँ हर नया मिलने वाला सबसे पहले यह पूछता हैं कि वह किस
देश से है? जबकि वह उन्हीं की तरह वहाँ की नागरिक है। रूप-रंग-नस्ल व्यक्ति के
अपना चुनाव न होते हुए भी उसकी समाजिक स्थिति में मायने रखते है। उसे ये बात और भी
बुरी लगती हैं कि उसके माँ-पिता भी इनके जैसे है। बड़ी बहन ने एक गोरे से शादी की।
यूँ उसे उसमें कोई आपत्ति नही लगती है। अमेरिकी संस्कृति में पलने के कारण उसे
व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सम्मान करना अच्छा लगता है। उसे आपत्ति हैं कि उसके
घर वाले अपने आपको गोरो जैसा समझते है। वह
पढाई के बाद भारत लौट जाना चाहती है। अमेरिका में जन्म से लेकर ही वह प्रवासी है
और प्रवासी जीवन का त्रास को वह अपने जीवन में भोग भी रही है।
भारतीय मूल की लेखिका सुधा ओम ढींगरा
एक लम्बे समय से अमेरिका में प्रवास कर रही है। सुधा ओम ढींगरा की ‘टोरनेडो’ कहानी में
पाश्चात्य जीवन-शैली और भारतीय जीवन-मूल्यों के बीच जूझती मिसेज शंकर नामक पात्र
के संघर्ष को उद्घाटित किया गया है। कहानी में प्रमुख पात्र के साथ-साथ स्वयं
लेखिका का जन्मभूमि और कर्मभूमि के प्रति अन्तर्द्वंद्व भी कहानी को त्वरा प्रदान
करता है। ‘क्षितिज से परे’ कहानी में एक प्रताड़ित स्त्री के विद्रोह को दर्शाया
गया है। वहीं ‘सूरज क्यों निकलता है’ कहानी में पुरुष पात्र तो भोगवादी संस्कृति
का शिकार है साथ ही स्त्री पात्र भी इसका शिकार है। यही भोगवादी संस्कृति और घर का
संस्कार विहीन वातावरण उन्हें किस हद तक ले जाती है उसका चित्रण इस कहानी में किया
गया है। माँ के स्वभाव रहन सहन और आदतों का परिणाम यह निकला कि बेटियां माँ के
नक़्शे-क़दमों पर चलती हुई, रोज पुरुष बदलती है और तीन बच्चों की अविवाहित माँ बनकर
सरकारी भत्ता ले रही है। इस स्थिति को किसी भी देश में उचित नही ठहराया जा सकता
है। इसे पतन की पराकाष्ठा ही कहा जायेगा।
भारतीय प्रवासी लेखिका सुदर्शन
प्रियदर्शिनी एक अरसे से कहानियां लिखती रही हैं। ‘अखबार वाला’ एक छोटी कहानी है
लेकिन कहानी में जिस भयावह यथार्थ को दिखाया गया है, उसका सरोकार बड़ा है सीधे
मनुष्य होने के अर्थ की तलाश करता हुआ। विदशी परिवेश में जहाँ भारतीय मूल की एक
औरत अकेली रहती है। उसके इस अकेलेपन में पीछे छूटा घर-द्वार, परिवार की छोटी सी
झलक मिलती है लेकिन विदेशी परिवेश में अकेली रह रही जया नामक इस औरत के भीतर जब-तब
भारतीय संस्कार जाग उठते है। इस संस्कार में मनुष्यता, जान-पहचान, पड़ोसियों से
सह्रदयता, मेल-जोल और मूल व्यक्तियों के प्रति सहानुभूति का भी एक कोना होता है
चाहे वह छोटा ही क्यों न हो। जया विदेशी परिवेश में यह देखकर हैरान हैं कि यहाँ
पड़ोसी एक-दूसरे से मिलने-जुलने की बात तो दूर, उनका नाम भी नहीं जानते। सब अलग-थलग
अपने में सिमटे रहते हैं लगभग आत्मनिर्वासन की हद तक यानी मनुष्य तो है लेकिन उनके
पास आत्मा नहीं हैं। पश्चिम देशों में यह एक आम बात है, जिस कारण ही भारतीय मूल की
स्त्री के लिए अकेलेपन को झेलना मुश्किल सा हो जाता है क्योंकि भारत में सभी एक
परिवार के रूप में रहते हैं तथा अकेलेपन का अहसास कम ही देखने को मिलता है।
इला प्रसाद की कहानी
‘खिड़की’ की नायिका वर्षा अपने पति से कमरे में एक खिड़की बनवाने का आग्रह करती है
ताकि वह बाहर की दुनिया से जुड़ पाए। पति को पत्नी की यह समस्या अनावश्यक लगती है।
लम्बे समय तक पत्नी की इस मांग की अनदेखी करने वाला पति, पिता बनते ही अपनी संतान
के लिए खिड़की की जरुरत महसूस करता है। जब कमरे में खिड़की बनती है तब तक पत्नी के
मन में बाहर की दुनिया देखने की इच्छा मर चुकी होती है। इस कहानी में पति के
द्वारा अनजाने में ही मिले मानसिक संत्रास को झेलती स्त्री के चरित्र को लेखिका ने
सधी हुई लेखनी से उकेरा है।
‘उस स्त्री का नाम’ कहानी में इला प्रसाद ने माँ की उपेक्षा का यथार्थ एवं मार्मिक
चित्रण किया है। अमेरिका में बेटे का बड़ा बंगला
होने के बावजूद वह ओल्ड होम्स के कमरे में रहती है। बीमारी की अवस्था में अकेले
जूझती है। दूसरों से लिफ्ट लेती है। उसके पास न तो उसकी तकलीफ पूछने वाला कोई है
और न ही कोई बात करने वाला है। जो भी उससे मिलता है वह उससे पहचान बनाना चाहती है
तथा उससे अपने सुख दुःख बांटती रहती है। अकेलेपन की शिकार वह खिड़की से पड़ोसियों की
गतिविधियाँ देखती रहती है और चाहती हैं कि फोन पर उससे बात करे। स्वयं की असहनीय
तकलीफों के बावजूद वह अपने बेटे और बेटी के लिए जी रही है। कहानी में शालिनी उस
वृद्ध स्त्री को ओल्ड होम्स पहुँचाने के बाद सोचती हैं कि कैसी विडम्बना है- “माँ
का संतान के प्रति सुरक्षात्मक रवैया, उसकी सुख-सुविधा की चिंता करती माँ। कभी
काली, कभी अन्नपूर्णा।... लेकिन उसके बाद? जब बच्चे बड़े हो जाते है, अपनी दुनिया
बसा लेते हैं..., लेकिन बुढ़ापे में बच्चों को सारी सुख-सुविधा देने के लिए ओल्ड एज
होम चली जाने वाली, भेज दी जाने वाली स्त्री के इस रूप का क्या नाम है? उसे
डिप्रेशन की बीमारी है। वह खड़ी नही रह सकती देर तक। असहाय, लाचार वह अपनी खिड़की से
वकील को पैसे कमाती देखती है। बेटे के फोन का इन्तजार करती है। परिचित-अपरिचित की
सहायता लेती है और बतला भी नही पाती कायदे से अपनी कहानी।”
निष्कर्षत: कहा जा सकता हैं
कि भारतीय मूल की लेखिकाएं जो पश्चिमी देशों में रहकर साहित्यिक रचनायें लिख रही
हैं उन्हें विदेशी संस्कृति, विदेशी परिवेश बेचैन करता है तकलीफ देता
है जहाँ कोई आँख ऐसी नहीं दिखती जिसमें वे अपनी संवेदनाओं को संवाहित कर सके। भारत
में रिश्तों को बेहद महत्त्व दिया जाता है परन्तु पश्चिम में रिश्तों को महत्त्व
नहीं दिया जाता। जिस कारण भी पश्चिम में स्त्रियों की स्थिति बेहद ही दुखदायी और
निराशाजनक दिखाई पड़ती हैं। जिसका यथार्थ चित्रण इन लेखिकाओं की रचनाओं में हमें
स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। इनकी रचनाओं में प्रवासी भारतीय स्त्रियों की
मानसिकता, सांस्कृतिक और पीढ़ीगत अंतराल को परत दर परत खोलती है। दो संस्कृतियों के
बीच पीस रहीं संवेदनशील स्त्रियों को उन्होंने बड़ी ही ईमानदारी से यथार्थ रूप में
चित्रित किया है।
सुदर्शन प्रियदर्शिनी की
नायिकाएँ कहानी के अंत तक परिस्थिति के साथ ताल-मेल बैठा लेती हैं। इला प्रसाद की
नायिकाएँ अंत में रोज़मर्रा के जीवन में लिप्त हो जाती हैं। सुषम
बेदी की नायिकाएँ अलग-अलग स्वभाव की होती हैं, वे जुझारू भी हैं, भावुक
भी, विद्रोही
भी तथा सुधा ओम ढींगरा की नायिकाएँ कहानी के अंत तक आते-आते सशक्त रूप ले लेती हैं, वे
परिस्थितियों से हार नहीं मानतीं बल्कि उनमें समस्याओं से लड़ने की क्षमता एवं
जीजिविषा जाग उठती है । किंतु ये सभी नायिकाएँ अपनी अस्मिता के प्रति जागरूक हैं। लेखिका सुषम
बेदी मानती हैं कि हर व्यक्ति छह-सात अस्मिताओं को लेकर चलता है, हर पहचान बहूत
महत्वपूर्ण है जिसे बचाए रखने के लिए जान की बाजी लगा देनी चाहिए।
सहायक ग्रन्थ:
1. ‘स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी: रचनात्मक सरोकारों की नयी
पड़ताल’ (2016), सं. हरीश अरोड़ा, साहित्य संचय, दिल्ली, ISBN: 978-93-82597-49-0
2. आलेख: ‘प्रवासी महिला कथाकारों की कहानियों में सांस्कृतिक
द्वंद्व’, डॉ. संगीता गुप्ता
3. ‘हिंदी चेतना’ (पत्रिका), सं. सुधा ओम ढींगरा, अंक:
अप्रैल-जून 2015
4. ‘वसंत’ (त्रैमासिक पत्रिका), अप्रवासी विशेषांक, अंक: 41
वर्ष 1984
प्रकाश चंद बैरवा
शोधार्थी: अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय
मो.न. 8285659946, 8178729580