Saturday, October 6, 2018

समकालीन हिंदी कहानी में बदलते जीवन संबंध


समकालीन कहानियों में जीवन यथार्थ की अभिव्यक्ति हुई हैं। समकालीन कहानी जीवन के हर पहलू को वास्तविकता के साथ अभिव्यक्त करती हैं। देश में बदलती सामाजिक परिस्थितियों ने अनेक जीवन मूल्यों में परिवर्तन किया है। यही परिवर्तन मूल्य दृष्टी समकालीन कहानी में अभिव्यक्त हो रही है। समकालीन कहानीकार अपने जीवन के अनुभव कहानी में लाकर उन्हें काल व परिवेश के वृह्त्तर प्रश्नों से जोड़ रहे है। “पहले के लेखक की एक अतिरिक्त सत्ता थी, इसीलिये वह रचना करता था। आज का लेखक रचना को झेलता है, क्योंकि हर जगह भागीदारी की हैसियत से वह विधमान रहता है।” (समकालीन कहानी दिशा और दृष्टि, पृष्ठ -171) समकालीन कहानी में परिवेश अधिक सशक्तता से प्रस्तुत हुआ है। नये जीवन और मूल्यगत संकट के परिप्रेक्ष में कहानीकारों ने बदली हुई जीवन स्थितियों और संबंधों में व्याप्त तनाव, विघटन और जटिलता को पहचान कर अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। भीष्म साहनी, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा, अमरकांत, शेखर जोशी, हरिशंकर पारसाई, कमलेश्वर, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, रमेश बक्षी, उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती आदि प्रमुख समकालीन कहानीकार हैं।
समकालीन समाज में जो नयी पीढ़ी दिखायी दे रही हैं उनके जीवन मूल्यों में पुरानी पीढ़ी की अपेक्षा तेजी से बदलाव हो रहा है। जिस कारण से समकालीन समाज में मानव के जीवन संबंधों में भी बदलाव हो रहा है। जीवन मूल्यों का प्रयोजन व्यक्ति के जीवन की सार्थकता के लिए अनिवार्य है क्योंकि जीवन मूल्यों को अपनाये बिना व्यक्ति, समाज, या राष्ट्र की उन्नति नहीं हो सकती। वस्तुत: जीवन मूल्यों का प्रोयजन ही समाज में नयी व्यवस्था का संचार करता है। ये मनुष्य को व्यक्तिगत स्वार्थ से निकालकर समाज के मानवीय कल्याण के लिए और लोकमंगल की भावना से प्रेरित कर उन्हें मानवतावादी भूमि पर प्रतिष्ठित करता है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज से ही उसका अस्तित्व निर्माण होता है। समाज में रहने के कारण मनुष्य को सामाजिक नीति-नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। सामाजिक जीवन मूल्य में समाज ही केंद्र बिंदु है। समाज में नीति-नियम तथा रुढ़ि-परम्परा आदि को प्रमुखता दी जाती है। परिवार समाज का एक अंग है। परिवार में ही व्यक्ति का पालन-पोषण होता है। परिवार से ही व्यक्ति को समाज, देश के बारे में ज्ञान प्राप्ति होती है। पारिवारिक जीवन मूल्य के अंतर्गत परिवार को केंद्र में रखा जाता है। आज पारिवारिक संबंधों में तेजी से बदलाव हो रहा है। जिसका मुख्य कारण पुरानी पीढ़ी व नयी पीढ़ी के तौर-तरीकों में मेल न खाना तथा आर्थिक विषमता है। अतः समकालीन हिंदी कहानियों में बदलते जीवन संबंधों को हम इस रूप में देखते हैं-
समकालीन समाज में एक व्यक्ति के लिए पारिवारिक संबंधों से अधिक धन का महत्त्व बढ़ता जा रहा है| जिस कारण ही हमारे समाज में बुजुर्गो के प्रति जो आदर भाव रहता था वह भी धीरे-धीरे गायब होता चला जा रहा है| उदय प्रकाश कृत ‘छप्पन तोले का करधन’ एक ऐसी ही कहानी है जिसमें धन की लालसा में पारिवारिक संबंध बिखरते नजर आते है| कहानी में करधन एक प्रकार का आभूषण है जो एक धनी परिवार को संबोधित करता है, जो छप्पन तोले का है। यह धनी परिवारों के द्वारा उपयोग में लाया जाता है। यह कहानी एक निर्धन परिवार की है, जो बेहद कठिनाई से जीवन यापन करता है। इस परिवार की दादी के पास ऐसा करधन है जो परिवार के अन्य सदस्यों को पता चलता है तो उन्हें लगता है कि इसके द्वारा उन लोगों की गरीबी दूर हो सकती है। पर दादी इस पर हमेशा चुप्पी साधी रहती है। उनके परिवार वाले हमेशा इस करधन को दादी से लेना चाहते है। इस कारण परिवार द्वारा दादी को द्वेष और तिरष्कार का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार दादी के माध्यम से लेखक उदय प्रकाश ने कहानी में दिखाया है कि एक बुजुर्ग के प्रति लोगों की स्थिति बेदम है। साथ ही कहानी में पारिवारिक रिश्तों को तार-तार होते हुए भी लेखक ने दिखाया है। आज पारिवारिक संबंध खोखले होते जा रहे है। लेखक का मुख्य उद्देश्य कहानी में अन्धविश्वास, गरीबी, भुखमरी, संबंधों की रिक्तता, संबंधों का टूटना तथा संबंधों में निसारता को दिखाना रहा है।
समकालीन समाज में धन का महत्त्व इतना बढ़ गया हैं कि आर्थिक स्तर पर ही मुख्य रूप से पारिवारिक संबंध बदल रहे है। एक व्यक्ति जो नौकरी करता है तथा अचानक उसकी नौकरी छुट जाने से उत्पन्न स्थिति जिसमें बेकारी के साथ भूख की, पेट की आग शायद वह सबसे बड़ी आग जो धीरे-धीरे सब कुछ छीन लेती है। उषा प्रियंवदा कृत कहानी ‘जिन्दगी और गुलाब के फूल’ में हम देखते हैं कि किस प्रकार एक व्यक्ति की नौकरी छीन जाने से उसके जीवन में कितना बड़ा बदलाव आ जाता है, जिसके बारे में वह कभी सोच भी नहीं पाता। कहानी में सुबोध ऐसा ही पात्र है जिसकी नौकरी अचानक छुट जाती है जिसके उपरांत माँ-बहन-प्रेमिका..... ये सारे संबंध सुबोध को बदले हुए रूप में दिखाई पड़ते है। कथानायक सुबोध की नौकरी छुट जाने से ही घर की सत्ता छोटी बहन वृंदा के हाथ में आ गयी और इसी के साथ अब घर के काम वृंदा की सुविधा के अनुसार होते है। भले ही सुबोध का पुरूष ह्रदय वृंदा की सत्ता स्वीकार न करे, उसे अब वृंदा के आदेश मानने पड़ते है। तभी तो वह सोचता है कि- “वह कहा से कहा आ पहुंचा है।” नौकरी जाने के बाद ही सुबोध का आत्मसम्मान धुल गया है। अब वह छोटी बहन पर भार बना हुआ है। माँ-बेटी का व्यवहार भी उसके प्रति रूखा हो गया है और घर में नौकरों जैसा व्यवहार उसके साथ किया जाता है। विषाद, चिंता और कहीं भीतर से पराजय-बोध से पीड़ित अपने मौन संघर्ष में लीन सुबोध माँ के लिए अनजान और अपरिचित सा हो गया है। सबसे अधिक आश्चर्य तो वृंदा पर था- “यह वहीँ वृंदा थी जो उसके आगे पीछे घुमा करती थी।.... और अब? उसी के स्वर थे कि काम-न-धंधा तब भी दादा से यह नहीं होता की ठीक समय पर खाना तो खा ले।” आत्मग्लानी होती है सुबोध के अपने किवं की असफलता पर। इस कारण एक आत्म-विध्वंसक वृति उसमे घर करती गयी। जिन्दगी ने सुबोध को ‘बिटर’ बना दिया है और बेकारी ने उसे आत्मनिर्वासित कर दिया है।
उषा प्रियंवदा अपनी कहानी ‘वापसी’ में भी ऐसी स्थिति उत्पन्न करती है जिसमें कहानी के महानायक गजाधर बाबु जो अपनी नौकरी से रिटायर्ड होकर अपने घर पहुँचते है| परन्तु अब स्थिति यह बन जाती है कि वे अब अपने ही परिवार में फिट नहीं बैठते, वे अपने ही परिवार के बीच अपने आप को अजनबी महसुस करते है| कहानी में वे बच्चों को शिक्षित करने के कारण वह खुद को परिवार से अलग रखते है। जिस परिवार को उन्होंने बहुत उत्साह, चाह से बनाया था, वही परिवार उनका न बन सका और अंततः गजाधर बाबु पुनः उस दुनिया की ओर अग्रसर हो जाता है जिसमें उनका अत्यधिक जीवन बिता। उनके जाने से किसी को निराशा नहीं हुई, परन्तु खुद गजाधर बाबु निराशा और वेदना से पीड़ित होते है। वहाँ के सदस्यों को पिताजी के आ जाने से घुटन महसूस होती है और उनके जाने के बाद स्वतंत्र और ख़ुशी होती है गजाधर बाबु खुद को विवशता के कारण उस रूप में ढालते है और एकांकीपन स्वीकारते है। लेखिका उषा प्रियंवदा कहानी के प्रारंभ में ही दिखाती है कि गजाधर बाबु अपने ही परिवार में फिट नहीं बैठ पाते- “अगले दिन वह सुबह घूम कर लौटे तो उन्होंने पाया बैठक में उनकी चारपाई नहीं है।” गजाधर बाबु जीवन में देखते है कि रिक्त स्थान की पूर्ति नहीं होती, परन्तु भरे चीज में भरना या समाना मुश्किल होता है।
मधु कांकरिया ने भी अपनी कहानी ‘कीड़ें’ में श्रीकांत वर्मा के माध्यम से दिखाया है कि किस प्रकार उनके नौकरी से सेवानिवृत होने के उपरांत उन्हें एक रोग लग जाने भर से ही उनका अपने ही परिवार से तिरस्कार कर दिया जाता है| कहानी में हिंदी के प्रोफ़ेसर श्रीकांत वर्मा के परिवार का चित्रण किया है। श्रीकांत जीवन भर अपने बच्चों और पत्नी को सारी सुविधाएँ देते रहे। सेवा से निवृत होने के बाद श्रीकांत को कीड़े का रोग लग जाता है तो बच्चों के साथ पत्नी भी उनका तिरस्कार करती है। व्यक्ति जब तक काम कर के पैसा कमाता है, तब तक परिवार के लोग उसे गौरव, सम्मान देते है, उनका आदर करते हैं। निवृत्ति के बाद श्रीकांत को देखने की जिम्मेदारी पत्नी के साथ-साथ बच्चों की थी। लेकिन कोई उनका खयाला नहीं रखता। कहानी के अंत में मयंक, मोहित अपने पिता को घर बुलाने जाते है तो पिता कहते हैं- “जीवन पर मेरी रे बदल चुकी है। में इन कीड़ों का कृतज्ञ हूँ। जिन्होंने ब्रह्माण्ड की तरह मुझे मृत्यु और संबंधों के कई रूप दिखाए और अंततः मेरी आत्मा पर लगे अंध-मोह और अज्ञात के कीड़ों को झाड़ दिया है। शीघ्र ही कुछ न किया गया तो मनुष्यता को लगे ये कीड़े वह सब नष्ट कर देंगे जो शिव है, सुन्दर है, पवित्र है और मानवीय है।” आधुनिकता के तेज जीवन में बच्चों को माता-पिता का ख्याल रखने के लिए समय नहीं मिल रहा है। वे इतने व्यस्त रहते हैं कि खुद के बारे में उनको सोचने के लिए समय नहीं रहता है।
समकालीन समाज में संयुक्त परिवार के टूटते चले जाने का एक प्रमुख कारण युवाओं का शहर की ओर आकर्षित होना है| युवाओं का शहरों की ओर रुख करने से बूढों की अपनी समस्याएँ बढ़ी है। इस असहाय अवस्था में बुजुर्ग व्यक्ति अकेले पड़ते जा रहे है। उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं रह गया है। ये लोग अकसर अपनी पुरानी सोच के कारण गॉव में ही रह जाते है। ज्ञानरंजन अपनी कहानी ‘पिता’ में पुरानी पीढ़ी के इसी रूढ़िवादिता को उदघाटित किया है। कहानी में पुरानी पीढ़ी का अपने समकालीन परिवेश से कटते चले जाने का दर्द चित्रित है। इस कहानी के पिता असहाय नहीं है। वे संयुक्त परिवार के एक सम्मानित सदस्य है। वे परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढाल लेते है तथा वे स्वाभिमानी भी है। किसी का अहसान नहीं लेना चाहते, यहाँ तक की अपने बेटे तक का भी नहीं। बहन की पढाई में भाई द्वारा खर्च किए गए रुपयों का हिसाब रखते है और एक दिन उस भाई को उतने रुपयों की एक पासबुक थमा देते है। उन्हें शक है कि कहीं भविष्य में उनका बेटा अपनी बहिन को यह अहसास न होने दे कि उसी की बदौलत उस बहन ने अपनी पढाई पूरी की। तब शायद उसे अत्यंत मार्मिक पीढ़ा से गुजरना पड़ेगा और वह अपने पिता को माफ़ नहीं कर पाएगी। इस दृष्टी से पिता का यह कदम दूरदर्शितापूर्ण लगता है। पिता के इस कदम को भले ही अटपटा मान लिया जाए पर यह हमारे सामाजिक जीवन की एक सच्चाई है और कोई भी स्वाभिमानी पिता अपनी संतान पर दूसरों का अहसान बर्दाश्त नहीं करता। पुरानी पीढ़ी के लोगों में इस तरह की प्रवृति देखने को मिलती है जिस कारन ही आज की पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी में तेजी से बदलाव हो रहा है तथा इसी कारण रिश्तों में बिखराव भी देखने में मिलता है।
समकालीन समाज में मध्यम वर्गीय व्यक्ति की उच्च वर्ग में जाने की चाह के कारण उसकी अवसरवादिता और महत्वकांक्षा भी पारिवारिक संबंधों के विघटन का रक प्रमुख करण है| भीष्म साहनी कृत ‘चीफ़ की दावत’ कहानी का मुख्य उद्देश्य मध्यम वर्गीय व्यक्ति की अवसरवादिता, उसकी महत्वाकांक्षा में पारिवारिक रिश्ते के विघटन को उजागर करना है। माध्यम वर्ग के व्यक्ति हमेशा उच्च वर्ग में शामिल होने के अवसरों की तलाश में रहता है, चाहे वह स्वयं निम्न वर्ग से मध्यवर्ग में पंहुचा हो। इस कहानी का महानायक शामनाथ दफ्तर की नौकरी पाकर उच्च पद पाने की महत्वाकांक्षा रखने लगा और उस की पूर्ति के लिए अपने दफ्तर के विदेशी चीफ़ की खुशामद में लग गया। चीफ़ की दावत का प्रबन्ध अपने घर में करके वह अपनी भुधि माँ की उपेक्षा करता है। महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए माँ के साथ उसका खून का रिश्ता भी गौण हो जाता है। चीफ़ की दावत के समय बूढी माँ प्रदर्शन योग्य वस्तु नहीं, बल्कि कूड़े की तरह कहीं छिपाने की वस्तु हो गयी है। लेखक भीष्म साहनी ने इस कहानी के माध्यम से दिखया है की किस प्रकार आधुनिक परिवारों में बूढों की उपेक्षा होती है और उनकी क्या दुर्दशा होती है।
अत: हम कह सकते है की समकालीन समाज में पारिवारिक पवित्र संबंधों की ऊष्मा और आत्मीयता पहले से बहुत कम होकर रह गयी है और उतरोत्तर कम होती चली जा रही है। सच तो यह है कि स्वतंत्र्योत्तर भारत में खंडित पारिवारिक संबंधों की वृद्धि का मुख्य कारण आर्थिक विषमता या पुरानी पीढ़ी व नयी पीढ़ी की सोच में अंतर का होना है। जिस कारण ही आज विदेशी संस्कृति के प्रभाव से वृद्धाश्रमों की संख्या दिन-ब-दिन बढती जा रही है। आज अधिक पैसा कमाने के लालच में मनुष्य अपने परिवार, परिवार के सदस्यों की मानसिकता, उनकी भावनाएं, ईच्छाओं के बारे में सोचने के लिए न समय है न संयम।


प्रकाश चंद बैरवा
शोधार्थी: अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय
मो.न. 8285659946, 8178729580